जब पहली बार अपना शहर छोड़ कर, पढ़ने के लिए घर से निकला था तोह उस रात नींद नहीं आई थी ढंग से। आदत नहीं थी नयी छत के नीचे सोने की। अब याद करता हूँ तोह न जाने कितनी छतों के नीचे ऐसे सोया हूँ कि जैसे कोई फर्क ही न हो किसी छत में। छत का फर्क अब ख़त्म हो चुका है। कुछ रातें बिना छत के भी गुज़ारी हैं इन तीन सालों में। छत के मायने बदल गए हैं। घर छूट चुका है। आदत हो गई है।