हवायें जो ले चलती मुझे तो चल भी देता, असीरी से भागता हूँ मैं। डर लगता है। कैसे, कब तक, और क्यों रहूँ किसी भी क़ैद में। जो कुछ मिल भी जायेगा तो क्या मिलेगा, उसका करूँगा भी तो क्या करूँगा, कितना वक़्त भी तो है जो गुज़र जायेगा। यूँ ही। इसी का डर है शायद कि गुज़र जायेगा, बस बेवज़ह। काश ऐसा होता कि मैं कुछ ऐसा कर सकता, कि ये हवायें जो हैं, ये ले चलती मुझे और मैं चल देता।