हिंदी की किताबों में कई दफ़े छुई-मुई के बारे में पढ़ा था मैंने। फिर जब बड़ा हुआ तो छुई-मुई जैसी लड़कियां भी देखी। उस दिन गार्डन में टेहलते टेहलते एक पौधे पर नज़र पड़ी, बोर्ड पर नाम पढ़ा तो हिंदी की किताबें याद आ गयी। वैसे तो ये हमारी पहली मुलाक़ात थी, सोच रहा था की कायदे से पेश आऊं। फिर मुड़कर अपने रस्ते चल दिया, रहा नहीं गया मुझसे तो वापस लौट आया और हाथ लगा ही दिया। वो मुरझा गयी । सब्र की बात थी, सब्र ही था जो नहीं था।